खामोश पसंद आदमी - परिचय


नींद उचट जाने से रात नहीं गुजर पाती है। मैं  इस कहावत को हमेशा से नकारता रहा था लेकिन कल यह यथार्थ सच बनकर मेरे सामने खड़ी  हो गयी। रात, मैं सपने की वहज से उठ गया था लेकिन कुछ चीज़ें  थी जो अधूरी थी और वही चीज़ें मुझे सोने नहीं दे रही थी।  रात का अँधेरा गहराता गया और जैसे मेरी नींद खाता गया। फिर अँधेरा  ओर गहराता गया और आखिर में उसने  इकट्ठा होकर प्रकाश को जन्म दिया यानी भोर होने वाली थीं।  सूर्य अपने काम को करने के लिए हमेशा की तरह  तैयार था और उसी बीच एक मद्धम सी हवा बड़ी ख़ामोशी से चलनी शुरू हुई  और मेरे बिस्तर पर आकर  मुझे ऐसा मलहम सा थपेड़ा की मुझे कब नींद गयी मुझे पता ही नहीं चला।  इसके बाद मैं अगले दिन  क़रीब नौ बजे उठा और तुरंत उस जगह  पर जाने के लिए तैयार हो गया जो मुझे खामोश पसंद आदमी के पास ले जा सकती थी ; हाँ वही आदमी जिससे मैं  कल मज़बूरी में मिला था ; हाँ, वही  जिसके बदन के हर हिस्से से ताकत टपक रही थी पर उसकी आँखे उसके अंदर की ख़ामोशी का द्वार थी। वो  जगह थी वही रेस्टोरेंट जहाँ कल मैं अजय से मिलने ज़रूर गया था पर  मज़बूरी में मैं खामोश पसंद आदमी से मिला गया था। हाँ, वही रेस्टोरेंट जहाँ सालो पुराणी धूल चढ़ी सुनहरी घडी थी।  

मैं रेस्टोरेंट में घुसते ही सीधे मैनेजर के पास गया और इससे पहले बात कहीं और से शुरू  होती मैंने मुद्दे की बात से शुरू करना ज्यादा सही समझा (यह मेरी कुछ ख़ास आदतों में से एक है)  - "क्या आप मुझे उस व्यक्ति के बारे में बता सकते है जिसके पास मैं उधर (इशारा करते हुए) बैठा था?

"कब , कल?"

"हाँ, कल।  क्या आप कुछ भी बता सकते है उसके बारे में जैसे की उनका पता और नाम? मुझे उनसे ज़रूरी मिलना है। "

उसने आपने चश्मा उतारा और एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा - "उसके लिए तो आपको नमन का इंतज़ार करना होगा , वो एक डिलीवरी मैन  है।  कल वोही उन्हें यहाँ लाया था। "

"अच्छा , ठीक है....... शुक्रिया। मैं.... इंतज़ार करुँगा। " मैं  असंमजस की स्तिथी में कुछ ऐसे ही बात करता हूँ। 

और इसके बाद मुझे दोबारा से उसी जगह पर बैठकर वही काम करना पड़ा जिससे मुझे सबसे ज्यादा नफरत है - इंतज़ार। लेकिन इस बार मैं सावधानी बरतकर एक खाली टेबल पर बैठा था। 

क़रीब 15  मिनट बाद (उसी  धूमिल सुनहरी घडी के अनुसार ) एक दुबले से शरीर का लड़का जो पहाड़ी दिख रहा था , पसीनो से लथपथ जैसे गर्मी से लड़कर आया हो और एक पैर से थोड़ा लडख़ड़ाते  हुए वहाँ आया। मैनेजर ने उसे उंगली से इशारे करके अपने पास बुलाया, कुछ कहा, फिर अपनी उंगली से मेरी तरफ इशारा किया, लड़के ने उंगली के इशारे के सामानांतर अपना सर घुमाया और मुझे देखा। इसके बाद जैसे की मैं आशा कर रहा था लड़का लँगड़ाते हुए मेरी तरफ आया और मेरे सामने ऐसे खड़ा हो गया मानो अगले ही क्षण मुझसे कहेगा - "मैं हूँ आपका गुलाम जिनी।  पूछो, आपको क्या पूछना है?" लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और वो बस  अपनी जगह चुपचाप खड़ा रहा। शायद यह खामोश पसंद आदमी को जानने का दुष्परिणाम था। 

"तो तुम नमन हो। "

"हाँ " उसने गर्दन हिलाते हुए कहा। 

"कल मैं एक आदमी के साथ यहाँ  बैठा था। मैनेजर बता रहा था की तुम उसे यहाँ लाये थे। दरअसल, मुझे उनसे ज़रूरी मिलना है।  तो कुछ भी ज़रूरी तुम्हे पता हो जो मेरी मदद कर सके; तुम मुझे बता सकते हो।

"मुझे नहीं पता की मैं आपको कुछ ऐसा बता सकता हूँ जो आपके काम सके क्योकि मैं भी उनसे कल ही मिला था। दरअसल , कल मैं एक डिलीवरी करने के बाद वापस रहा था तभी  रास्ते में एक तेज़ कार दूसरी साइड से आयी और उसने मुझे साइड मार दी मैं साइकिल पर था। मुझे सर के पीछे और घुटने में चोट आयी (उसने दाँया घुटना दिखते हुए कहा)  चोट लगने के बाद मैं उठ नहीं पा रहा था लेकिन कुछ क्षण बाद किसी ने मुझे पीछे से उठाया।  एक तगड़ा, लम्बा आदमी , हाँ वही जिससे आप कल मिले थे।  उसने मुझे अपने मजबूत हाथो में उठाकर सड़क किनारे बने बेंच पर बैठा  दिया ; फिर एक लम्बी और गहरी  नज़र मुझ पर डाली  मानो मुझे स्कैन किया हो और आँखे बंद करते हुए सर हिलाकर मुझे सांत्वना दी की ज्यादा चोट नहीं लगी है।  इसके बाद वो साइकिल की और मुड़े , उसका एक पहिया मुड़ चूका था और चैन की तरफ से फट्टी भी उतर चुकी थी। लेकिन उन्होंने अपने मजबूत हाथों को बड़ी कुशलता से इस्तेमाल करते हुए दोनों  चीज़े सही कर दी। "

अपना टपकता हुआ पसीना पोछने के लिए वो कुछ क्षण रुका और फिर से बोलना शुरू किया - "मैं साइकिल चलाने की स्तिथी में नहीं था इस बात को उन्होंने अच्छे से भाप लिया था इसलिए उन्होंने मुझे और मेरी साइकिल को यहाँ तक छोड़ा। "

"मैंने उन्हें अंदर आकर मेरी तरफ से  खाना खाने के लिए बुलाया , आखिर इसी तरह तो हम किसी को धन्याद देते है। लेकिन मेरे लाख कोशिश करने पर भी वो मना ही करते रहे पर जब मैंने केवल एक कप चाय के लिए कहा तो वो मान गए और इसके बाद वो आपसे मिले। "

"वो सब ठीक है  पर  फ़िलहाल मुझे कोई ऐसी चीज़ बताओ जिससे मैं उनसे मिल सकूँ जैसे की उनका पता या फिर उनका नाम।  हाँ कुछ ऐसा ही। "

"मैं, केवल आपको यह बता सकता हूँ की मैं उनसे कहाँ मिला था शायद वो आपकी मदद कर सके। " लड़के ने कहा। 

थोड़ी देर तक मैंने सोचा की क्या यह शायद बस शायद ही है या शायद से बहुत कुछ हो सकता है। और कुछ निष्कर्ष ना  निकलने पर मैंने उस शायद के साथ ही जाने की ठानी। 

फिर हम दोनों गाड़ी में बैठे और क़रीब 15  मिनट ड्राइव करने के  बाद हम उस जगह पहुंच  गए जहाँ कल वो लड़का खामोश पसंद आदमी से मिला था।  

आस - पास पास केवल एक पान वाला  दिखाई दे रहा था  जो शायद हमे कुछ बता सकता था  इसलिए हम उसी के पास गए।  हमे देखकर उसने अपनी लाल बत्तीसी दिखाई फिर पान थूका और बड़े अदब से बोला - "बताओ जनाब मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ ?" 

उसका बोलने का अदब और और उसकी आवाज़ की स्वाभाविकता से एक क्षण के लिए मुझे शक हुआ की यह पान ही बेचता है या फिर राहगीरों को रास्ता बताता है या  दूसरो के राज़।  कुछ भी हो मुझे उसी क्षण महसूस हुआ की हो ना  हो मैं आया बिल्कुल सही जगह हूँ। जब तक मैं उस क्षण से बाहर आकर उससे कल के एक्सीडेंट के बारे में पूछना शुरू करता तब तक उसके मुँह में एक और पान जा चूका था।  

"कल, यहाँ एक एक्सीडेंट हुआ था जिसमे एक गाड़ी ने एक साइकिल सवार को  टक्कर मर दी थी। " मैंने पूछा। 

"वो गाडी तुम्हारी थी क्या ?"  वो एक अजीब सी कटु हंसी हँसते हुए  बोला - "कल तो रोकी नहीं गाड़ी तो आज क्यों रोक ली। "

"अरे , मैं वो नहीं हूँ। जिस लड़के के कल टक्कर लगी थी वो लड़का यह है। मुझे तो बस उस आदमी के बारे में पूछना था  जिसने इसकी मदद की थी। " मेरी आवाज़ में क्रोध का थोड़ा अंश जाने से वो अकबका सी गयी थी। 

"हाँ , मुझे भी लग ही रहा था की आप जैसा  इंसान आखिर ऐसा कैसे कर सकता।  मुझे तो आप शुरू से ही बड़े शांत व्यक्ति लग रहे थे। " और  उसने दोबारा से अपनी वही लाल बत्तीसी दिखाई। मैंने नमन की तरफ देखा और उसे देखकर ऐसा लगा मनो उसके गले में कुछ है  जिसे उसे  निगलने में थोड़ी मुश्किल हो रही थी। 

 "हाँ..... हाँ। वो तो ठीक है  लेकिन हमे उस व्यक्ति के बारे में पूछना था जिसने इसकी मदद की। तो कुछ भी जैसे नाम , पता या फिर  इसी तरह कुछ भी आपको पता हो तो आप हमे बता दो। "

उसने पान चबाना बंद कर दिया और अपनी हथेली माथे से गुजरते  हुए सर के बालो में  फिर गर्दन के पीछे ले गया और वही खुजाने लगा। यह कुछ ऐसा था मनो उसने अपनी मेमोरी को खंगाला हो ठीक उसी तरह जैसे हम गूगल पर कुछ खंगालते है , बस अंदाज़ अलग था ; हाँ , सर्च इंजन और ब्राउज़र भी।  

"लम्बा ,तगड़ा सा आदमी " उसने पान थूकते हुए कहा। 

"हाँ , हाँ वही , वही। "

"बस आप इस सामने वाली गली में सीधे चलते जाओ और दायें हाथ पर आखिर से दो घर पहले के घर चले जाओ। वैसे थोड़ा सख्त आदमी है वो;और  मैंने तो यह भी सुना है की वो किसी से बात भी नहीं करता। यहाँ तक की कुछ लोग तो यह भी कहते है की उसने अपना घर भी खुद ही बनाया  है। "

"अच्छा जी ,अब मैं चलता हूँ  मुझे थोड़ी जल्दी है, शुक्रिया।" और इससे पहले बात मुद्दे से भटक कर कही और चली जाती और मेरा वक़्त फिज़ूल में जाया करती , मैने पीछा छुड़ाना ही  सही समझा। 

इसके बाद मैं उसी बताये हुए रास्ते पर चलने लगा लेकिन उससे पहले मैंने नमन को रेस्टोरेंट के लिए रवाना कर दिया था दिखने में वो थोड़ी नयी कॉलोनी लग रही थी  और बहुत से प्लाट खाली  भी पड़े थे। मैं दाए हाथ पर पीछे से तीसरे घर के सामने पहुंचा।  घर के अंदर से खट - खट की आवाज़ रही थी जैसे कुछ ठोका जा रहा हो।      

जैसे ही खट - खट की आवाज़ रूकी मैंने कुंडी खटखटाई और कुछ क्षण  बाद गेट खुला और  मैं जिस आदमी को ढूंढने की सुबह से मेहनत कर रहा था वो आखिरकार  मेरे सामने प्रत्यक्ष था।  खामोश पसंद आदमी  ने अधखुले दरवाज़े से मुझे देखा , वो एक पतली सी और बेहद मैली टी-शर्ट पहने हुए थे उनके  हाथ मे एक हथौड़ी थी  (या शायद वो हथौड़ा था जो उनके विशाल हाथ में बस एक हथौड़ी बनकर रह गया था ) और वो ऊपर से नीचे तक पसीनो में भीगे हुए थे।  

मैंने आँखों ही आँखों में अंदर आने के लिए पूछा। जवाब में  उन्होंने  त्योरी चढ़ाते हुए और मुझे तीखी - तिरछी निगाहों  से देखते हुए  गर्दन ऊपर उठाई जिसका मतलब था पहले मैं उन्हें यह बताऊ की आखिर क्यों मैं उनसे मिलना चाहता हूँ। लेकिन मैंने अपनी माँग पर अड़ते हुए पहले अंदर आने की अनुमति माँगी और क्यों ना माँगता आखिर मैं सुबह से केवल उन्हें  ढूंढने के लिए ही तो इतने चक्कर लगाए थे। और इस पर उन्होंने मेरी आँखों में अपनी आँखे गाड़ दी पर उन्हें नहीं पता था कि मैं इस विद्या में स्कूल के दिनों से ही काफी महारत हासिल कर रखी थी। भले ही मैं उनकी कितनी भी इज्जत करता हूँ पर मैने  इसे एक चुनौती की तरह लिया। अगली 10 मिनट तक हम दोनों एक दुसरे की आँखों को ताड़ते रहे। और आख़िरकार जैसे की मैं उम्मीद कर रहा था उन्होंने अपनी आँख झुकाई और दरवाज़ा पूरा खोलते हुए मुझे अंदर आने का इशारा किया। तो इस तरह मैं उनके आखिरी और केवल  परीक्षण में सफल हो गया।  दरवाज़ा सीधा हॉल में खुला जिसके दोनों तरफ एक -एक कमरा था। हॉल में केवल एक तख्त पड़ा था जिस पर दो तकिया बड़े अदब से रखे हुए थे। सीधे हाथ वाले कमरे में जो तीनो कमरों में  सबसे छोटा था  खामोश पसंद आदमी कील ठोकने में व्यस्त हो गए ; थोड़ी नज़र घुमाई तो पता चला की वो कमरा एक रसोई थी जो थोड़ी अजीब तरीके से बनी हुई थी।  दाएँ हाथ वाले कमरे में कम रौशनी थी और ऐसा लग रहा था मानो बहुत सारे औज़ार दिवार पर बड़े करीने से लटके हुए हो।  

क़रीब 7 मिनट इंतज़ार करने के बाद खामोश पसंद आदमी चाय का एक कप लिए  हुए आये और वो कप मुझे थमा दिया। खुद वो एक कुर्सी पर बैठ गए जो वो अपने साथ ही लाये थे। 

और हमेशा ही  की तरह  इससे पहले की बात कहीं और से शुरू होकर घूमती हुई मुद्दे पर पहुँचती मैंने मुद्दे से हे शुरआत करने की सोची और ऐसा किया भी। 

"मैं परेशान करने के लिए माफ़ी चाहता हूँ पर मुझे आपसे आपके कल के बारे में पूछना था यानी आपकी कहानी जननी थी और वो आपसे मिले बिना संभव नहीं था , तो इसलिए...... हाँ , इसलिए मैं यहाँ आया था।" मैंने आगे कहा - "कल, जैसे की आपका बचपन या फिर आप मुझे अपने  इस तरह होने का कारण भी  बता सकते है।"

उन्होंने एक गंभीर दृस्टि से मुझे देखना शुरू कर दिया और जवाब मैं मैंने अपने  चेहरे को उन्ही की तरह गंभीर बनाने की कोशिश की। उनके माथे पर एक अलग सी शांति थी  क्या यह तूफ़ान से पहले की शांति थी,नहीं यह एक गहरी सोच में डूबे हुए इंसान की ख़ामोशी थी। वो ख़ामोशी उनके चेहरे पर आकर ठहर - सी  गयी थी मानो महीनों ठहरने की योजना  बनाकर आयी हो। 

एक डूबते हुए और अत्यंत भारी एवं गंभीर स्वर में उन्होंने मुझसे पूछा -"क्या तुम कभी पहाड़ो में गए हो?"

"नहीं, पर मैं समुद्र किनारे जरूर,,,,,, "

मुझे नहीं पता की उन्होंने मेरी बात पूरी सुनी भी थी या नहीं लेकिन मैं इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि यह जो आदमी अब बोल रहा था वो वह खामोश पसंद आदमी नहीं लग रहा था जिससे मैं कल मिला था।  

"एक अद्भुत सौंदर्य , एकांत और असीम  शांति के अलावा बहुत कुछ समेटे हुए होते है यह पहाड़। वहां ख़ामोशी और आवाज़ का एक अजीब मिश्रण है। ना वो उसके बिना पूरी और ना वो उसके बिना पूरा। " और वो मिश्रण उनके कठोर से चेहरे पर एक नये  खिले पुष्प के समान उनकी  मुस्कान के  साथ  यथा अंकित हो गया। 

"तो क्या आपका बचपन पहाड़ो में बीता यानी आप पहाड़ो से है। "

"नहीं , जिस गांव मैं में  पला - बड़ा वहाँ दूर दूर तक कोई पहाड़ नहीं थे। बस खेत थे एक घर था जिसमे मैं रहता था  और..... "

थोड़ा याद करते हुए उन्होंने आगे कहा - "गांव की यादें धुँधली सी पड़  गयी है। मुझे बस याद है - खेत बहुत सारे खेत और उसमे काम करते आदमी , एक छोटा सा आँगन और उसके बीच एक विशाल पीप्पल का वृक्ष , टायर दौड़ना , बगिया में टहलना।  हाँ , माँ बाबा और चाचा भी याद है। "

"माँ " यह शब्द उनके मुख से ऐसे निकला जैसे किसी ने गिटार पर एक मलहम सा हाथ लगाया हो और उसकी पहेली स्ट्रिंग ने गलती से अपनी सबसे खूबसुरत ध्वनि निकाली हो।  

"माँ, हाँ मुझे याद है उनका वो मुस्कराता हुआ चेहरा। मैंने उन्हें कभी भी उस चेहरे के बिना नहीं देखा।  वो रसोई में बैठकर खाना बनाती और हमेशा मुझे आवाज़ लगाती -"बिरजू बेटा खाना खा ले नहीं तो ठंडा हो जायेगा। " और मैं आँगन से आपना  खेल छोड़कर भागता हुआ  उनके पास  चला आता। आखिर खेल उनके प्यार से खिलाए गए निवालों से ज्यादा अच्छा थोड़े ही था। वो मुझे गोद में बैठाती और बड़े प्यार से निवाला खिलाती। उनके रहते मैं कोई उनके कहानियों के राजकुमार से कम नहीं था।"

उनके ख़ुशी से दमकते चेहरे पर अचनाक से एक दर्द की लकीर झलक उठी और उनकी भारी आवाज़ ने उन्हें और गहरा कर दिया।  एक क्षण रुकने के बाद वो आगे बोले - "पर एक दिन सब बदल गया उनका हँसता हुआ चेहरा अचनाक गायब हो गया। चाचा ने बताया की उन्हें भगवान ले गए। मैं शायद उन्हें वापस ला पाता पर मुझे भगवान का पता ही नहीं मालूम था और ना ही किसी ने मुझे बताया। उनके जाने से जिंदगी में रंग गायब से हो गए। बाबा जो पहले से ही बहुत कम बोलते थे उनके जाने के बाद वो बचे - कूचे शब्द भी भूल गए।  बस एक ही चीज़ रह गयी - ख़ामोशी। ख़ामोशी जो किसी चीज़ का उत्तर नहीं देती थी क्योकि वोही उत्तर थी और हमारी आने वाली ज़िन्दगी भी।"

खामोश पसंद आदमी अब खो चले थे पुराने यादों के अनंत समुंदर में। खुशकिस्मती से इस बीच मुझे उनका नाम भी पता चल गया था - बिरजू। 

"बाबा जैसा की मैंने तुम्हे बताया की अक्सर चुप रहा करते थे और ज्यादातर समय बरामदे में हुक्का गुड़गुड़ाते हुए गुजारते या कभी - कभी भगवत गीता पढ़ते। वो सुबह खेत में  निकल जाते और दोपहर के भोजन तक घर वापस जाते फिर वोही हुक्का गुड़गुड़ाते, बस इतना ही याद है मुझे बाबा के बारे में। "

"हाँ , वो दिन भी याद है जब मैं आँगन में बैठकर चीटियाँ गिन  रहा था और चाचा ने मुझे आकर बताया की बाबा को भी भगवन ले गए।  वो दिन भी उस दिन की ही तरह  भयानक था सब रो रहे थे और मुझे सांत्वना दे रहे थे ;चाचा का  रो -रोकर बुरा हाल था और उनकी आँखे सुबह से रो - रोकर लाल गुब्बारा हो चुकी थी। लेकिन मैं नहीं रोया बिलकुल भी नहीं रोया। चाचा ने कहा मैं  बहुत बहादुर हूँ इसलिए नहीं रोया पर सच तो यह है कि मेरे दिल को कोई वजह नहीं मिल रही थी रोने की हाँ डरने की ज़रूर मिल रही थी। " खामोश पसंद आदमी के आँखों में आँसू तरेरने लगे थे और उन आँसुओ के अंदर वो दर्द भरी कहानी चल रही थी। 

" चीज़े गुजर जाने के बाद ज्यादा याद आती है और उस दिन के बाद मुझे इस बात का प्रमाण हर क्षण मिल रहा था। एक अंधेरी परछाई की तरह वो हमारा  पीछा नहीं छोड़ती। एक  रोज़ मुझे एक डरावना सपना आया और मेरी नींद टूट  गयी। मैंने चारो और देखा और पाया की जैसा मैंने सपने  में देखा था ऐसा कुछ था ही नहीं , बस मैं था और एक अजीब सा सन्नाटा। एक अजीब सी खामोशी उस रत को लपटे हुए थीं। ख़ामोशी जो कुछ कह रही थी  फिर चिल्लाने लगी और आखिर में दहाड़ने लगी।  मैंने ख़ामोशी को इतने विकराल रूप में पहले कभी नहीं देखा था और ना ही कभी उसके बाद कभी देखा। मैं बहुत बहादुर हूँ।  नहीं , चाचा गलत थे मैं बहादुर नहीं था मैं बिलकुल बहादुर नहीं था। उस रात मैं उस सपने के बाद वहाँ और नहीं रुक सका। रात के अंधेरे में ही मैने भागना शुरू  कर दिया और मुझे सुकून मिला। जितना मैं घर से दूर भागता जाता मुझे उतना ही सुकून  मिलता जाता। दूसरे दिन मैं भागता -भागता बेहोश हो गया आँख खुली तो मैं एक गेराज में था।  कुछ लड़के मेरी  उम्र के मेरे चारो और खड़े थे किसी ने मुझे पानी दिया और एक ने खाना। इसके बाद मैं वही काम करने लगा और वही रहने लगा और अपना पुराना दर्द भुलाने लगा। "

"आप कितनी उम्र के रहे होंगे जब आपके साथ यह सब हुआ। " मैंने बिना सोचे पूछा। 

"हूँ...... , शायद 15 या फिर16" महाशय जी ने थोड़ा टटोलते हुए कहा। 

" और उसके बाद आप  यहाँ गए।" मैंने कहा। 

"नहीं। मैं, वहाँ क़रीब 2 साल रहा। उस बीच मेरा  मशीनो से काफी लगाव हो गया और मैंने बहुत से कामों मैं तो काफी महारत हासिल कर ली थी। लोग  यहाँ तक कहते थे की मैं आवाज़े सुनकर बता देता था कि कौनसे पुर्जे में और क्या खराबी है पर वो गलत थे क्योकि वो ख़ामोशी थी जो मुझे खराबी बताती थी। सभी  मेरे काम से खुश थे पर तीन आदमी हमेशा से  मुझसे जलते रहते। रज़्ज़ा उसमे से ही एक था वो आये दिन मुझे झगड़ने के कारण  ढूँढ़ता पर मैंने कभी  मेरी तरफ से उन कामो को आग नहीं मिलने दी।  हालाँकि उस दिन.... " वो कहते हुए अचानक रुक गए। 

"हाँ , उस दिन क्या हुआ।  बताओ।" मैंने उत्सुकता से पूछा। 

"उस दिन काफी बारिश हो रही थी मैं एक गाड़ी की सर्विस करते हुए भीग गया था। दोपहर का समय हो रहा था और कोई वाहन भी नहीं रहा था इसलिए मैं नहाने चला गया। नहाने से पहले मैंने अपने तावीज़ को भी साफ किया (और उसी वक़्त मेरी नज़र उनके हाथ में बंधे तावीज़ पर पड़ी), वो  तावीज़ माँ की याद दिलाने वाली एकमात्र चीज़ थी मेरे पास जिसे मैं गलती से उस रात घर से ले आया था।  नहाने के बाद मैंने देखा की तावीज़ वहाँ नहीं  था   जहाँ मैंने उसे सूखने के लिए रखा  था। मुझे पता था तावीज़ कहाँ और किसके पास था।  मैं सीधे रज़्ज़ा के पास गया और उससे अपना तावीज़ माँगा।  लेकिन उसने उसे अपने हाथ  में घूमते हुए जेब में रख लिया। मैंने आखिरी बार रज़्ज़ा से  तावीज़ माँगा।  और उसने मुझे अनसुना कर दिया। " कुछ पलों की  शांति "मैंने उसे तब  तक मारा जब तक उसने मुझे मेरा तावीज़ वापस  नहीं दे दिया। उसके मुँह से खून निकल रहा था। उन क्षणों के लिए मैं मैं नहीं था।मैंने ऐसा कभी नहीं किया था। इसके बाद  मैं वहाँ से भी भाग गया।  भागता रहा कई दिनों तक  बस भागता रहा। "

"पर यह तो Sir Issac  Newton  के नियमो के खिलाफ है। उनका तीसरा नियम जो कहता है की -"For Every Action Their is An equal and Opposite Reaction" लेकिन यहाँ तो केवल एक्शन था बिना किसी रिएक्शन के।" मैं उस समय यह सब खामोश पसंद आदमी से कहना चाहता था पर नहीं कहा। क्यों, पता नहीं। 

इसी बीच खामोश पसंद आदमी कुछ समय के लिए रुके और मुझे लगा जैसे वो भाग रहे थे। उन्होंने बोलना शुरू किया और मुझे ऐसा लगा मानो वो अब रुक चुके थे।  मुझे ऐसा क्यों लगा , पता नहीं। -मैं एक रेलवे स्टेशन पहुँच गया, वहाँ एक रेल खड़ी थी जो चलने वाली थी मैं  उसमे बैठ गया , वो  चलने लगी फिर चलती रही , बस चलती रही उसी तरह जैसे मैं भाग रहा था।  आख़िरकार वो एक स्टेशन पर रुकी, एक बहुत बड़ा स्टेशन।  मैंने अपनी ज़िन्दगी में केवल एक बार उससे पहले कोई स्टेशन देखा था और यह उससे लगभग 10  या 20 गुना बड़ा था। वहाँ हर जगह बस ट्रेन  थी कुछ रुकी हुई थी कुछ चल रही थी और आदमियों का हुजूम था और एक बजता हुआ स्पीकर   सब कहीं ना कहीं जा रहे थे बस मैं ही था जो कहीं नहीं जा रहा था।  मैं यह सब देख ही रहा था की एक मोटा सा आदमी सफ़ेद पोशाक पहने जिसके चेहरे पर एक बड़ा काला चश्मा था और वो चमकते काले जूते पहने हुए था मेरे पास आया और बड़ी स्फूर्ति से कुछ बोलते हुए जो की मेरे समझ नहीं आया , अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया। मैंने कहा -क्या। अबकी बार वो मुझे घूरते हुए बोला टिकट दो अपना।  पर मेरे पास तो बस तावीज़ था या फिर मैं खुद था और इनमे से कुछ भी देने लायक नहीं था इसलिए मैंने सर हिला  दिया। कुछ सोचकर वो मुझे एक कमरे में ले गया जहाँ फाइलो के चट्टे लगे पड़े थे। मैं एक घंटे तक वहाँ बैठकर इंतज़ार करता रहा और उसी की तरह कुछ आदमियों को जो सफ़ेद पोशाक पहने हुए थे और कुछ जो उसके ऊपर एक कला कोट इधर - उधर घूमते हुए देखता रहा।  तभी एक आदमी जिसके सारे बाल सफ़ेद थे, एक लाल शर्ट पहने हुए था और पिछले 10  मिनट से मुझे देख रहा था,अंदर आया। कमरे के एक कोने मैं बैठे काले कोट पहने आदमी के पास गया और उससे कुछ कहने लगा।  दोनों कुछ देर तक बतलाते रहे।  इसके बाद वो मेरे पास आया और बोला  की क्या तुम काम करना पसंद करोगे।  और मैंने हाँ कर दी। मैं वहाँ सफाई का काम करने लगा। कभी दिन में काम करता और रात को सो जाता तो कभी रात को काम करता और दिन मैं सो जाता। मेरे काम के बदले वो मुझे कुछ रुपए दे दिया करते। कुछ दिनों बाद मुझे इंजन की सफाई में लगाया गया, वहाँ मेरी जिज्ञासा और मेरा मशीनो के प्रति लगाव को देखते हुए एक इंजीनियर ने मुझे काम पर रख लिया। वो मेरे काम से काफी खुश रहता या फिर सही कहूँ तो  मेरी ख़ामोशी से। कुछऔर दिन बाद  मैं दोबारा डिबो और ट्रैक की सफाई करने लगा क्योकि वो इंजीनियर चला गया था। कुछ और दिन बाद मुझे यह काम करते जब 2 साल हो गए। फिर एक दिन डिब्बों की सफाई करते हुए मुझे एक पर्स मिला , काला , मोटा और मख़मली से कपडे से बना पर्स। वो पर्स बिल्कुल  अलग था और बाबा के पर्स की तरह उसपर रबर भी नहीं चढ़ी थी। मैं उसे  कॉउंटर पर जमा कराने पहुँच गया , वहाँ एक बंगाली औरत बैठती थी।  जब मैंने उसे वो पर्स जमा करने को कहा तो कुछ देर तक तो वो स्तब्ध होकर बस मुझे घूरती रही फिर बोली क्या मैं उस पर्स को सच में जमा करना चाहता हूँ। मैंने कहा , हाँ।  पर्स में बहुत से रुपए थे और कुछ सिक्के भी थे इसके अलावा कुछ कागज थे और एक बड़ा सा कागज का  कार्ड था।  उसने उस कार्ड को यह कहते हुए मुझे दे दिया की यह कुछ काम का नहीं है और मैं चाहूं तो इसे मेरी  ईमानदारी के लिए अपने पास रख सकता हूँ, मैंने ज्यादा ना सोचते हुए उसे अपने पास रख लिया।  उस कार्ड पर पहाड़ बने हुए थे जो सूर्य की लालिमा पड़ने के कारण सुनहरे हो चुके थे और बड़े मनोरम और शांत लग रहे थे।  उनमे एक अजीब शांति थी जो मुझे  खींच रही थी। उसके बाद मैं दिन भर उन पहाड़ो के बारे मैं सोचता रहा।  मन कर रहा था भागकर वहाँ चला जाऊ पर मुझे पता नहीं था की भागना किधर की तरफ था इसलिए मैं कार्ड को लेकर टिकट काउंटर पर चला गया जहाँ एक खड़ूस बूढ़ा आदमी बैठता था , सब कहते थे की उन्हें सब जगह के बारे में पता है तो क्या पता वो इसके बारे में भी बता दे।  मैंने कहा की मुझे यहाँ जाना है और इससे पहले मैं और कुछ और कह पता उसने मेरे हाथ में एक टिकट पकड़ा दिया जैसे वो सभी को पकड़ा रहा था और कहा  सामने वाले प्लेटफार्म पर एक घंटे में जो पहेली ट्रेन  आएगी उसमे बैठ जाना और सबसे आखिर में जहाँ रुकेगी वहाँ उतर जाना हालाँकि उस ज़माने में कंप्यूटर नहीं थे पर वो व्यक्ति बिल्कुल कंप्यूटर की ही तरह काम करता था और उसी तरह बोलता था। खैरमैंने ऐसा ही किया।  ठीक एक घंटे बाद वहाँ ट्रैन चुकी थी बिल्कुल समय पर हालाँकि सब कह रहे थे की यह दो घंटे लेट है।  ट्रेन कुछ 15 मिनट में चलनी शुरू हो गयी और चलती रही बस चलती रही। "


खामोश पसंद आदमी फिर रुक गए और मुझे दोबारा लगा मनो वो रुके नहीं थे बल्कि चल रहे थे कुछ क्षण बाद उन्होंने दोबारा बोलना शुरू किया- "ट्रेन आख़िरकार बिलकुल रुक गयी और मैं वहाँ उतर  गया।  सामने पहाड़ मानो उस कार्ड से उठकर ज्यों के त्यों मेरे सामने प्रत्यक्ष हो उठे थे लेकिन ठंडी हवाऐ तंग कर रही थी।

वो इतना ही कह पाए थे कि अचानक सामने दिवार पर लगी घडी जिसको मैंने अभी तक नहीं देखा था वो बजनी शुरू हो गयी उसके अनुसार दो बज चुके थे और  हमे वार्तालाप करते क़रीब एक घंटा या फिर उससे भी ज्यादा हो गया था। 

उस आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया। मैं कहानी में इस तरह खो गया था की महाशय जी के पीछे - पीछे उनके गांव फिर गेराज, ट्रेन और आखिर में पहाड़ पर भी पहुँच गया था।  उस झटके से मेरा शरीर तो वर्तमान में गया लेकिन साँसे वहीं रह गयी। मैं अनायास ही उसे इधर - उधर ढूँढ़ता रहा तब तक वो अपने आप वापिस गयी।  शायद वो छूटी नहीं थी बस पीछे रह गयी थी। 

मैं इस दुर्घटना से अभी उभर ही रहा था की खामोश पसंद आदमी सामने गेट पकडे मुझे बाहर आने को कह रहे थे। उन्हें कहीं जाना था और संयोग से मुझे भी उसी क्षण अपना एक अधूरा काम याद गया। हम दोनों अपनी - अपनी राह पर हो लिए।  गली से निकलते ही  पान वाला  अपनी पहली वाली जगह पर दिखा और उसने मुझे देखकर दोबारा अपनी वही लाल बत्तीसी दिखाई जवाब में मैंने भी हाथ हिला दिया।  

मुझे खामोश पसंद आदमी से मिलकर ख़ुशी ज़रुर हो रही थी पर एक अफ़सोस था की शायद हम थोड़ा ओर बात कर पाते। और यह थोड़ा कितना था, मुझे नहीं पता।  शायद जब तक खामोश पसंद आदमी की कहानी पूरी नहीं हो जाती तब तक।  गांव, गराज, रेलवे स्टेशन और फिर पहाड़। हाँ , क्या हुआ होगा पहाड़ो में की खामोश पसंद आदमी इस शहर में जो आवाज़ों  से भरा पड़ा है, जहाँ ख़ामोशी का कोई आदर पालन नहीं करता और जिस जगह से उनका अब तक दूर दूर तक कोई नाता नहीं दिख रहा था, ऐसे शहर में किस चीज़ या घटना या मज़बूरी ने आने पर विवश किया होगा। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल मेरे मन में यह था की क्या आज रात मैं इस सवाल के साथ सो पाउंगा या फिर दोबारा कोई भयानक सपना मेरी नींद उचाट देगा। वैसे भी  नींद उचट जाने से रात नहीं गुजर पाती है यह अब  केवल एक कहावत नहीं है मेरे लिए बल्कि एक यथार्थ सच है। 

To Be Continued…….

Link for the first part- खामोश पसंद आदमी -एक मुलाकात 

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