खामोश पसंद आदमी -एक मुलाकात
उस दिन मैं अजय से मिलने एक लोकल रेस्टोरेंट आया हुआ था। कोई जगह खाली ना पाकर मैं एक आदमी के पास बैठ गया जिसके बारे में मैनेजर ने बताया था की वो एक खामोश पसंद आदमी है इसलिए तुम शोर मत करना। खैर मज़बूरी में कुछ भी करना पड़ता है, अपनी बात को गुप्त रखने के लिए भाई बहनों को घूस देनी पड़ती है या फिर अंक प्राप्त करने के लिए बेसुरे मास्टर को भी सुरीला कहना पड़ता है और मेरा वहाँ बैठना इसी कड़ी का एक हिस्सा था । मैं उस महाशय के सामने बैठ गया। वो बड़े इत्मीनान से अपने बड़े - बड़े हाथो में चाय का एक छोटा - सा कप पकडे चाय पी रहा था। उसकी मजबूत काठी थी,, लम्बा कद था सीना इतना चौड़ा की एक साँस में शत्रु की सारी प्राणशक्ति खींच ले और भुजाओं से ताकत रह - रह टपक रहीं थी मतलब वो किसी भी तरह एक ख़ामोशी को पसंद करने वाला आदमी नहीं लग रहा था। फिर मैंने उसकी आखो में देखा और उसकी अंदर की ख़ामोशी का द्वार पाया।
मेरे मन मैं एक ख्याल आया कि क्यों ना इस व्यक्ति से कुछ सवाल किये जाये और इससे उसकी खमोशी का राज़ पूछा जाए लेकिन तभी मेरे कानो में मैनेजर की वो चेतावनी गूँज गयी जो उन्होंने मुझे उस जगह पर बैठने से पहले दी थी। और ठीक उसी क्षण मेरी नज़रे उस महाशय की नज़रों पर पड़ी और मुझे ऐसा करने के मतलब उनसे प्रश्न करने के, बुरे परिणाम ना होने की सहानुभूति मिली। इससे पहले की बात कहीं और से शुरू होकर घूमती हुई मुद्दे पर पहुँचती मैंने मुद्दे से ही शुरुआत करने की सोची।
पहले मैने एक बहुत गहरी साँस ली फिर उस महाशय की आँखों में देखा और आख़िरकार उनसे सवाल करने की प्रचुर शक्ति जुटाई।
"मैंने सुना है की आप ख़ामोशी के ज्ञाता हैं , तो क्या आप ख़ामोशी पर आपना नज़रिया मुझे बताना पसंद करोंगे?"
पहले उन महाशय ने मेरी तरफ देखा फिर मैनेजर की तरफ देखा और दोबारा से अपनी चाय पीने में व्यस्त हो गए। मुझे लगा शायद मेरी बात उन्हें समझ नहीं आयी या फिर उन्हें मेरी बात सुनी नहीं या फिर उन्हें लगा होगा की कोई ओर बोल रहा होगा इसलिए उन्होंने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया और इसी कारण मैंने एक बार फिर वही प्रश्न करने की ठानी।
"सर, क्या आप मुझे ख़ामोशी के प्रति अपने नज़रिये को बताना पसंद करोंगे ? क्योकि मैंने...... "
मैं इतना ही बोल पाया था की महाशय जी ने एक कटु दृष्टि मुझ पर डाली और फिर गर्दन कमऱ के साथ बिल्कुल सीधी करते हुए अपनी आँखों की पलक नीचे झुका ली जिसका मतलब था की उन्हें सब सुन रहा है और वो जवाब देंगे तब तक मुझे शांत बैठना होगा। अगली 10 मिनट मुझे वो करना पड़ा जो मुझे करना सबसे बुरा लगता है - इंतज़ार। मैं उस महाशय की तरफ देख रहा था और वो इत्मीनान से चाय पी रहे थे ; बीच - बीच में मैं अजय के अब तक न आने पर उसे गाली दे रहा था, इसलिए नहीं की वो लेट हो गया था बल्कि इसलिए की उसकी वजह से मैं यहाँ फँस चूका था। मैं यह सब सोच ही रहा था तभी मेरे मन में एक आवाज़ आयी और मैं जिस चीज़ को पिछली 10 मिनट से नहीं समझ पा रहा था वो शायद मेरे इस क्षण में समझ आ गयी थी।
यह ऐसा था जैसे ख़ामोशी ने मेरे कानो में फुस्फुसाया हो कि मूर्ख यही तो ख़ामोशी हैं। यह मेरी ज़िन्दगी का सबसे सुंदर उत्तर था और मेने कभी सोचा भी नहीं था की यह उत्तर मुझे ख़ामोशी देंगी। मैं इस उत्तर को पाकर ख़ुशी से पागल हो रहा था शायद इतना जितना में पहले कभी नहीं हुआ था।
मैंने उत्तर देने से पहले आखिरी बार उत्तर के बारे में सोचा और पहले की ही तरह एक गहरी साँस ली लेकिन अबकी बार मैंने उस महाशय की आँखों में नहीं देखा। अचानक ऐसा लगा मानो रेस्टोरेंट की सारी आवाजें आनी बंद हो गयी थी और सभी मेरे उत्तर देने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
"मैं समझ गया आपकी ख़ामोशी का उत्तर " मैंने एक गंभीर स्वर में कहा।
महाशय ने एक नज़र मेरे चहरे को देखा जैसे उससे कुछ पढ़ा हो, फिर एक हलकी मुस्कराहट उनके चेहरे पर देखने को मिली शायद जिसका मतलब था बहुत खूब उत्तर दिया। लेकिन वो कुछ नहीं बोले।
"यह 10 मिनट ही आपके अनुसार ख़ामोशी है ना " मैंने कहा।
उन्होंने अपने कप से आखरी चाय की चुस्की ली और मेरी तरफ देखते हुए बोले "यह केवल एक तरह की ख़ामोशी है........जिसे तुमने समझा हैं।" उनके स्वर में मेरे स्वर से कहीं अधिक गंभीरता थीं शायद इसलिए क्योंकि वो बनावटी नहीं थी ।
"मतलब"
"मतलब यह की जिस तरह शब्दो की भाषा है उसी तरह ख़ामोशी की भी एक भाषा है। कभी इसका मतलब हमारे बीच की ख़ामोशी की तरह कोई उत्तर होता है तो कभी इसका मतलब किसी का इंतज़ार करना होता है। "
"यह एक अलग तरह की भाषा है जिससे हम जानवरों से भी बातें कर सकते है और हमे इसके लिए कोई पढाई करने की भी ज़रूरत नहीं होती यह हमारे अंदर कुदरती होती हैं। "
"वो कैसे; मैं समझा नहीं ?"
अबकी बार उनके चेहरे की मुस्कराहट और चौड़ी हो गयी और उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा मानो मैं यह सवाल करूँगा यह उन्हें पहले से ही पता था।
"क्या तुम नहीं पहचानते उस ख़ामोशी को जब कक्षा में आपसे कोई सवाल किया जाये और आप ना बता पाए हो, या फिर उस ख़ामोशी को जब स्टेज पर खड़े होने के बाद कई क्षणों तक आपके कुछ याद ना आये या फिर उस ख़ामोशी को जो तूफ़ान से पहले होती है या फिर शाम की ख़ामोशी या किसी के मर जाने के बाद की ख़ामोशी या फिर घर में झगड़ा हो जाने के बाद की ख़ामोशी को तो तुम पहचानते ही होंगे। ख़ामोशी हर जग़ह है यह शब्दो की भाषा की तरह ही एक भाषा है और इसका महत्व शब्दो से कुछ कम नहीं हैं। लेकिन यह संसार विचित्र हो होता जा रहा है; यहाँ इस प्राचीन भाषा का कोई मोल नहीं रह गया है सब शब्दों के पुजारी हैं सबको आवाज़ चाहिए। यहाँ कोई ख़ामोशी को अच्छे से नहीं समझना चाहता है; यही वजह है की कभी हमारी ख़ामोशी को हाँ समझ लिया जाता है तो कभी हमारा गुरुर।"
"हाँ, आपका कहना सही है कि ख़ामोशी का भी एक स्थान है हमारी ज़िन्दगी में, लेकिन दो आदमी ख़ामोशी से बाते करें ऐसा तो मुमकिन नहीं लगता !" मैंने कहा।
"तुम शायद मुझे शब्दों के ख़िलाफ़ मान रहे हो लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है मरे अनुसार तो दोनों चीज़े एक - दुसरे पर निर्भर है। यानी जिस तरह हम एक दूसरे पर निर्भर है उसी तरह बोलना और ख़ामोशी दोनों भी एक दूसरे पर निर्भर है और ज़रूरी भी इसलिए हमे दोनों की ही कद्र करनी चाहिए। यदि आवाज़ काग़ज पर लिखें शब्दों की तरह है तो ख़ामोशी उन शब्दो के बीच की दूरी जिसका होना आवाज़ को समझने के लिए बहुत ज़रूरी हैं।" महाशय जी कहते हुए अचानक रुक गए शायद सोच रहे थे की क्या बोलकर मुझे और अच्छे से समझाया जा सके। इस बीच मैंने अपना फ़ोन निकाला और समय देखा जो कुछ एक बजकर चालीस या सैंतालीस हो रहा था। उसी बीच महाशय जी ने भी उनके सामने लगी घडी में समय देखा। रेस्टोरेंट में लगी उस घडी की हालत ज्यादा अच्छी प्रतीत नहीं हो रही थी वो बिल्कुल काली पड़ चुकी थी और उसका सुनहरा रंग भी मुश्किल ही दिख रहा था। मैं शर्त लगा कर कह सकता हूँ की वो घडी काम से भी कम 10 या 15 साल पुरानी ज़रूर होगी।
"तो!" मेरे घड़ी के क्षणों के साथ क्षण खत्म इस शब्द के साथ हुए और महाशय जी ने दोबारा बोलना शुरू कर दिया था।
"मैं कोई आवाज़ का चिर विरोधी नहीं हूँ जैसा तुम सोच रहे हो बल्कि मैं इसका भी इतना ही आदर करता हूँ जितना की मैं ख़ामोशी का करता हूँ। लेकिन आज संसार में सभी की जुबान उसके दिमाग़ से ज्यादा तेज़ हो गयी है। ख़ामोशी की परवाह तो यह संसार भूल ही चूका है परंतु शब्दों के मायने भी खोते और उलझते जा रहे है। संसार को ज़रूरत है शब्दों के कम और उचित चयन की ताकि ख़ामोशी और शब्द एक साथ रह पाए ताकि ख़ामोशी एक बार फिर शब्दों के बीच का वो खाली स्थान बन सके जिससे हम शब्दों को समझ पाते हैं।
और इतना कहकर महाशय जी अपनी कुर्सी से उठ गए और मेरी तरफ मुड़ते हुए बोले।
"ख़ामोशी में शांति है जो शब्दों में बिल्कुल भी नहीं है इसलिए ख़ामोशी जैसा कुछ नहीं और इसी वजह से ये सबसे ज़रूरी है।"
इतना कहकर महाशय जी मुड़ गए और मैनेजर से कुछ कहा और इसके बाद सामने वाली गली में गायब हो गए। उस क्षण मैं उन्हें रोकना चाहता था परंतु मैं भूल गया था की इसके लिए मुझे उन्हें आवाज़ लगानी होगी। ऐसा होना शायद ख़ामोशी को पसंद करने वाले आदमी के पास बैठकर उनसे क़रीब चालीस मिनट ख़ामोशी के बारे में बात करने का दुष्प्रभाव था।
इसी बीच मेरे फ़ोन के में एक नोटिफिकेशन आयी ; अजय ने एक ज़रूरी काम आने की वहज से मिलने में असमर्थता जताई थी। मैने मैसेज को देखकर ऐसे अनदेखा किया मनो में उससे मिलने आया ही नहीं था; और वो भी मैं ही था जो कुछ 15 मिनट पहले उसके समय पर ना आने पर उसे गाली दे रहा था।
मैं काउंटर पर गया फिर याद आया की मैंने पानी के सिवा तो कुछ लिया ही नहीं इसलिए मैं वहाँ से उलटे पैर हो गया। अपनी कार में बैठा और आदतन कार के ऑडियो प्लेयर को ऑन कर दिया जैसा की मैं हमेशा करता था। पहला गाना "senorita" (मेरा पसंदीदा गाना) बजा पर आज वो किसी भी तरह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था; मैंने अगला चलाया फिर उससे अगला लेकिन कोई भी गाना अच्छा नहीं लग रहा था ऐसा प्रतीत हो रहा था मनो मैं केवल शोर सुन रहा था। मैने कार साइड में रोकी फिर म्यूजिक सिस्टम बंद किया और एक गहरी साँस ली। इसके बाद मैंने सारे रास्ते ख़ामोशी का गाना सुना, ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत गाना।
घर पहुँचते समय रास्ते में गुप्ता जी मिले और मुझसे पूछने लगे -"और शर्मा जी कैसे हो ?"
मैंने सर हिलाकर अपने हाल - चाल अच्छा बताने की कोशिश की पर पडोसी को शायद यह बात समझ नहीं आयी और उन्होंने अपना माथा ठनका कर मुझे अपनी अपनी प्रतिक्रिया बताई। मैं ज्यादा समझ नहीं पाया और आगे बढ़ गया फिर पांडेय जी मिले और उन्होंने भी वही सवाल पूछा और मैंने भी वही जवाब दे दिया यानी शांत रहकर सर हिलाया और अपने अच्छे होने की बात दोहराई और जवाब में पांडेय जी ने भी गुप्ता जी की ही तरह अपना माथा ठनकाया। "यह हो क्या गया है मेरे पड़ोसियों को, इस तरह वो कभी नहीं करते थे ?" तभी एक दबी हुई आवाज़ मेरे कानों में आयी "कभी - कभी हमारी ख़ामोशी को हमारा गुरूर भी समझा जाता है। "
इसके बाद मैं जल्दी से सबसे आँखे चुराता हुआ अपने कमरे पर पहुँचा और झट से दरवाजा बंद कर लिया ताकि आज और कोई मुझसे बात करने ना आ सके। शाम को अजय का कॉल आया और मैंने बड़ी ख़ामोशी से उससे बात करने की कोशिश की लेकिन वो निकला शब्दों का पुजारी, वो सवाल पर सवाल करता रहा लेकिन पता नहीं क्यों मैंने भी आज बिना बोले यानी ख़ामोशी के साथ जवाब देने की ठान ली थी जैसे। पर ऐसा करना मैंने कब शुरू किया मुझे नहीं पता शायद खामोश पसंद महाशय जी से मिलने के बाद। अजय बोलता जा रहा था और मैं उसे ख़ामोशी से उत्तर देने की कोशिश कर रहा था जो की उसके समझ नहीं आ रहे थे। अचानक़ अजय ने चिढ़ते हुए कहा -"भाई, मर गया क्या ?" ठीक उसी क्षण मेरे दिमाग में उसी आवाज़ ने जिसने 10 मिनट पहले मुझे चेताया था फुसफुसाते हुए कहा - "कभी -कभी हमारी ख़ामोशी को हाँ भी समझा जाता है। " मैंने उसी क्षण फ़ोन काटा और अजय को टेक्स्ट किया -
"भाई, मैं बिल्कुल ठीक हूँ और ना ही तुझसे गुस्सा हूँ। बस, तुझसे अभी बात नहीं कर सकता।"
" तुझसे कल बात करता हूँ "
मैसेज सेंड होने के तुरंत बाद मैंने फ़ोन को flight मोड पर लगा दिया ताकि और किसी का कॉल ना उठाना पड़े। मैंने ऐसा क्यों किया मुझे नहीं पता। मैं पिछले 8 घंटो से किसी से नहीं बोला था और मैंने ऐसा क्यों किया मुझे नहीं पता। मैंने सोने से पहले टेलीविज़न भी नहीं देखा और मैंने ऐसा क्यों किया वो भी पिछले सभी कार्यों की तरह मुझे नहीं पता। कुछ चीजें और आवाज़ मैंने आज पहेली बार देखी और महसूस की, मैंने वो पहले क्यों नहीं की मुझे नहीं पता। शायद वो खामोश पसंद आदमी मुझे यह बता सके। हाँ, एक वो ही है जो मुझे मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर बता सकते है।
फिर उसी रात मैने सपना देखा कि मैं बहुत सारे आदमियों से घिरा हूँ। वो कुछ बोल रहे थे और हँस रहे थे जो मुझे समझ नहीं आ रहा था या फिर सुन नहीं रहा था; मुझे ठीक से याद नहीं। अक्षर चारों और बिखरे हुए थे और मुझसे दूर जाते प्रतीत हो रहे थे मैं आगे बढ़कर उन्हें रोकने की कोशिश करने लगा लेकिन किसी ने जैसे मेरा पैर पकड़ रखा था जिस वजह से मैं हिल नहीं पाया। फिर मैंने खामोश पसंद महाशय को देखा वो बड़ी शांति से खड़े होकर मुझे देख रहे थे मैंने उन्हें आवाज़ लगानी चाही पर मैं भूल चूका था ऐसा किस तरह करते है। मेरे चारो और भीड़ बढ़ती चली गयी, कोई मेरे ऊपर हँस रहा था तो कोई मुझे तिरछी निगाहो से देख रहा था ; मैं उन्हें रुकने के लिए कहना चाहता था लेकिन मैं भूल चूका था ऐसा कैसे करते है , मैं भागना चाहता था लेकिन किसी ने मुझे पकड़ रखा था। मेरा दिल तेज़ी से धकड़ने लगा था , उसी क्षण खामोश पसंद आदमी अपनी जगह से उठे और मेरी आँखों पर अपना विशाल हाथ रख दिया। तभी मेरी आँख खुल गयी। मैं अपने कमरे में था और कहीं भी सपने जैसा कुछ नहीं था बस मेरी धड़कन तेज़ थी। रात के कुछ 2 :30 बजे थे। आँखों में नींद दूर दूर तक नहीं थी इसलिए मैं सपने के बारे में सोचने लगा और तब मुझे लगा की मुझे खामोश पसंद आदमी से मिलकर एक बार बात करनी चाहिए और उसकी कहानी पूछनी चाहिये। हाँ ,कुछ तो छूट गया जो शायद उसकी कहानी में है। और मैंने खामोश पसंद आदमी से मिलने की ठान ली हालाँकि मुझे उनका पता और यहाँ तक की उसका नाम तक भी नहीं मालूम था। आखिर कैसे ढूँढ पाउगा मैं उन्हें। रात काफी बड़ी थी इस बारे में सोचने के लिए वैसे भी आँखों में नींद दूर - दूर तक नहीं आ रही थी। 1 घंटा बीता होगा जब मेरे मन में एक ख्याल आया और मैं ख़ुशी से उछल पड़ा। हाँ, मुझे अचानक पता चल गया था की कैसे मैं उन महाशय जी से मिल पाउँगा।
To Be Continued....



यह कहानी कसी थी , शायद मेरे अल्फाजो से बेहतर मेरी खामोशी यह उत्तर जानती है ।
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