कल की बात
कभी सोचा है की हम कल की बात आज ही क्यों करते है। मतलब हम कल की बात कल और आज की बात आज भी तो कर सकते है। यह थोड़ा अजीब विषय है और थोड़ा जटिल भी इसलिए हम इसे यही छोड़ देते है और आज मतलब अब कल की बात करते है। तो कल, नही यह परसो की बात हैं जब करीब दसवीं बार मम्मीजी के कहने पर आखिरकार मैंने अपनी मेज को साफ करने की ठानी। कल की बात तो यह हैं की मैंने उसे साफ़, उसे मतलब अपनी मेज को साफ़ किया। बरामद हुई चीजों में बारह बुक, छह कॉपी, एक चम्मच और पॉच पैन थे, जिन्हें मैं बिल्कुल नहीं मानता कि मैंने ही कभी उन्हें वहां रखा था। लेकिन यहां एक कॉपी है जो दिखने में कॉपी ज़रूर लग रहीं थीं पर शायद यह नहीं थी। हाँ, यह एक किताब थी। "क्षितिज", नाम तो जाना पहचाना सा लगा और इसका कवर भी। ओह हाँ यह तो कक्षा नौ की किताब है और फिर यादों की बेड़ियां खुलनी शुरू हो गई। अमित सर, दो बैलों की कथा, ग्रामश्री, प्रेमचंद के फटे जूते, काली तू रजनी भी काली, विकास काली, ल्हासाकी ओर, और भी काफ़ी कुछ मुझे याद आने लगा। नहीं, बल्कि मुझे लगभग सब याद है और मम्मी कहती है कि मैं सारे बादाम ऐसे ही बर्बाद करता हूं। बहुत सी यादे ताज़ा हो गयी थी पर अभी भी बहुत कुछ बाकी था और उसका ताला था वो बुक। मैं और इंतज़ार नहीं कर सकता था इसलिए मैंने ताला खोल दिया। पहला पेज और प्रेमचंद जी का जीवन परिचय, माफ़ करना साहित्य सम्राट प्रेमचंद जी का जीवन परिचय। नहीं पहले पेज पर जीवन परिचय कैसे हो सकता है , या तो मैं कुछ भूल रहा हूँ या फिर मेरे भाई ने सहूलियत के लिए आगे के पन्ने गायब कर दिए होंगे। कोई और होता तो मैं आगे बढ़ जाता पर साहित्य सम्राट प्रेमचन्द और मेरे प्रिय लेखक; मैं इन्हे नज़रअंदाज़ नहीं कर सका। जीवन परिचय पर प्रेमचंद जी की एक फोटो है जिसमे उनके कनपटी पर बाल चिपके है और गालों से हड्डियाँ उभर रही है , हॅसे ना जाने कितने साल हो गए है बस चहेरे पर एक मूँछ ही है जो पूरे चेहरे को हरा - भरा बनाने की नाकाम कोशिश करती है, ओर जग़ह से तो बस दरिद्रता ही झलक रही हैं। पर यह उनकी शांत आँखे थी जिन्होंने मुझे सकते में डाल दिया था, ये आँखे इतनी शांत कैसे हो सकती है यह आख़िरकार साहित्य सम्राट की आँखे है इन्हे तो खोजी की आँखों की तरह होना चाहिए था। यह ज़रूर चित्रकार की गलती हुई होगी।
वैसे में जब
भी प्रेमचंद जी
को देखता हूँ
तो मुझे अपने बाबा जी
की याद आ
जाती है। मैं
उन्हें पिताजी कहा
करता था। मेरे
लिए उनमे और
प्रेमचंद जी में
बस इतना ही
अंतर था की
मुझे प्रेमचंद जी
की कहानी पढ़नी
पड़ती और पिताजी
की मुँह जबानी
सुनने को मिल
जाती। पिताजी के
पास अकबर-बीरबल
,तेनालीराम,
चूहे , बिल्ली, खरगोश,
शेर, हाथी, कुत्ते,
महाभारत,
रामायण और एक
था राजा जैसी
बहुत सारी कहानियाँ
थीं। वो कहानी
सुनते समय बिल्कुल
खो जाते। कभी
बच्चे की तरह
तुतलाते
हुए बोलते तो
कभी राक्षस की
तरह भरभराती हुई
आवाज़ मे, कभी
गर्व से सीना
चौड़ा करके वीरों
की तरह बोलते
और कभी निराश
होकर धीमे से
स्वर में बोलकर
दिखाते और कभी-कभी तो
वो हाथों को
हवा में लहराते
हुए कहानी के
पात्र को जीवंत
कर देते, ऐसा
लगता मानो कहानी
मेरे सामने ही
घटित हो रही
हो।
मैं गर्मियों की
छुट्टियाँ
ज़्यादातर
पिताजी के साथ
घर के ठीक
बाहर एक कमरे
में जिसे हम
बैठक बोलते थे
उसमे बिताता ।
गर्मियों
में दोपहर काफी
लंबी होतीं है
तो मैं सारा
दिन कभी पढ़कर
तो कभी सोकर
और जब इन
दोनों से काम
न चलता तो
पिताजी के पास
जाकर उनके पैर
दबाकर बीतता। पिताजी
के पैर दबाने
के पीछे सबसे
बड़ी वजह थी
उनसे कहानी सुनना।
जैसे ही मैं
पैर दबाना शुरू
करता उनके अनेको-अनेक किस्से-कहानियाँ शुरू
हो जाती और
समय यू ही
गुज़र जाता।
एक दिन हर रोज़ ही की तरह मैं पिताजी के पैर दबा रहा था और पिताजी अपने में लीन होकर मुझे ऐसे ही एक किस्सा सुना रहे थे जो मुझे ज्यादा याद नहीं क्या था (शायद बादाम इतने ज्यादा भी काम नहीं कर रहे है)। कहानी इतनी गहरी थी की मेरी 12 साल की बुद्धि बाकी के सारे दिन उसके बारे में ही सोचती रही। शाम का भोजन करने के बाद हम रोज़ की तरह थोड़ा टहले और उस बीच मेरी 12 साल की बुद्धि में उस कहानी के जरिए ही कुछ ऐसा समझ आ गया जो 12 साल के हिसाब से, बहुत बड़ा था इसलिए मुझे उसे पचाने में थोड़ी ओर देर लगी और इस बीच मैंने उस बात को कैसे कहना है उसका भी थोड़ा अभ्यास कर लिया। मैं मौका देख कर पिताजी के पास गया , वो खाट पर लोटकर एक गाना गुनगुना रहे थे। मैं धीरे से उनके पैरों के पास खाट पर जो ज़गह थी वहाँ धीरे से खिसक गया और उनके पैर दबाना शुरू कर दिए। पिताजी ने मुझपे कोई ध्यान नहीं दिया और बस यू ही गुनगुनाते रहे। मेरे पेट मे बात पच नहीं रही थी इसलिए मैंने आख़िरकार बोलना शुरू कर दिया।
"पिताजी"
मेरी ज्यादातर उनसे
ऐसे ही बात
करने की शुरआत
होती। "एक बात
बातो" ;
"हाँ,बता क्या
है" इस बार
पिताजी का ध्यान
मेरी तरफ गया
और उन्होंने गुनगुना
बंद कर दिया।
"देखो,
भगवान ने हमें
प्रेम, गर्व, उदारता,
ममत्व जैसी अच्छी
भावनाएँ
दी जिसमें हम
बहुत खुश रहते
पर फिर भगवान
ने हमे ये
घृणा, द्वेष, घमंड
आदि की भावनाएँ
क्यों दी। सोचो,
यदि ये बुरी
भावनाएँ
हमारे अंदर होती
ही ना तो
कितना अच्छा होता
यह संसार। "
यह सब बोलने
के बाद ऐसा
लगा मनो पूरा
शरीर हल्का हो
गया हो, एक
भारी सा बोझ
जैसे मैंने पिताजी
के कंधे को
दे दिया हो।
इस तरह की
जटिल बात को
एक बार में
कहकर विजयश्री की
भावना शरीर में
उमड़ रही थी
जिससे मेरी छाती
कई इंच चौडी
हो गयी थी
और चेहरे पर
एक मुस्कान अंकुरित
हो गयी थी।
"सागर
....... बेटा थोड़ा नीचे
से दबा पैर
और थोड़ी जान
लगा " पिताजी ने
बड़े इत्मीनान से
कहा और फिर
सोच में डूब
गए।
मैंने विजयश्री से
उत्पन्न
ऊर्जा को संचित
करके अपने हाथों
में समाहित किया
और फिर पूरी ताकत से
दबाना शुरू कर
दिया।
"देखो
बेटा, भगवान ने
हमे बहुत सारी
भावनाए दी और
साथ ही एक
बुद्धि भी दी
ताकि हम उनका
अच्छे से प्रयोग
कर सके। यदि
हमे वो केवल
अच्छी ही चीज़
देता तो हम
उसकी कदर ही
भूल जाते इसलिए
ही तो उसने
फूल के साथ
कांटे दिए और
दिन के साथ
रात भी दी
उसी तरह उसने
हमे कई तरह
की भावनाये दी
ताकि हम उनका
अच्छे से इस्तेमाल
करके इस संसार
में अच्छे से
विचरण कर सके।
और जो तुम
कह रहे हो
की ये क्रोध,
द्वेष, घृणा, भय
आदि बुरी भावनाएं
है वो भी
एकदम गलत है।
सागर, हमेशा ध्यान
रखना की यदि
वो हमे पीड़ा
, कष्ट या फिर
संकट दे भी
रहा है तो
वो हमे कुछ
बताना चाहता हैं।"
पिताजी महाभारत में
कृष्ण की भाती
मुझे समझा रहे
थे।
उत्तर खत्म होने
तक पिताजी उठकर
बैठ चुके थे।
शाम की मद्धम
-मद्धम रोशनी में
भी मुझे पिताजी
के चेहरे पर
एक हलकी मुस्कान
और और माथे
पर तीन धारी
वाली सिकुड़न साफ़
दिख रही थी।
पिताजी तीन धारी
वाली सिकुड़न को
एक विद्वान आदमी
की पहचान बताते।
इसलिए में भी
कभी -कभी सीसे
के सामने खड़े
होकर अपनी सिकुड़न
देखता; वो दो
होती और मैं
उसे तीन करने
की कोशिश करता
ताकि मैं भी
दिखा सकूँ की
मैं कोई पिताजी
से अलग नहीं
हूँ। बस मुझे
किसी तरह पिताजी
जैसा दिखना था । लेकिन
वो लकीरें जब
भी दो ही
थी और आज
भी दो ही
है। खैर, दोबारा
पिताजी के पास
चलते है। पिताजी
मेरे चेहरे की
तरफ देखने लगे
और शायद उन्होंने
मेरे चेहरे से
उड़ती हवाईयो को
भाप लिया होगा
क्योकि उस समय
तक मुझे ज्यादा
कुछ समझ नहीं
आ रहा था।
"पर
सही और गलत
तो सबको पता
ही है फिर
भी हम गलत
चुनते है ऐसा
क्यों। " आज तो
मानो मेरे ज्ञान
के सारे चक्षु
खुल गए थे
और में एक
विद्वान
की भाती वार्तालाप
कर रहा था
ठीक वैसे ही
जैसे शकुंतला ने
कभी विद्वानों के
समक्ष की थी।
"ऐसा
इसलिए क्योकि हम
इंसान है और
इंसान को वास्तविकता
को जनाना मिथ्या
के मुक़ाबले थोड़ा
कठिन होता है।
"
"वो
कैसे "
"देखो,
जो वास्तविक है
उसे हम केवल
खुली आंखों से
ही देख सकते
है जिसमे हमें
फिर भी कई
बार धोखा हो
ही जाता है
लेकिन अवास्तविकता को
हम आँखे बंद
करके भी देख
सकते है और
इसलिए हम ज्यादातर
जो अवास्तविकता यानि
मिथ्या है उसे
देखने के कारण
सच मान लेते
है। और यही
कारण है कि
इंसान इतने सारे
गलत कदम उठता
है। "
वैसे मुझे अब
तक इस पूरे
व्याख्यान
से ज़्यादा कुछ
समझ नहीं आया
था पर यह आख़िरी वाक्य
सीधा दिमाग में
घुस गया और
मुझे ऐसा लगा
मनो मैंने आज
कुछ बहुत बड़ा
पा लिया हो।
उस क्षण में
बारह साल के
बच्चे की तरह
नहीं बल्कि एक
वयस्क की तरह
महसूस कर रहा
था। और यह
सब आप लोगों
को बताते हुए
मैं अपने आप
को एक बच्चे
से ज्यादा महसूस
नहीं कर रहा
हूँ। ये कल
की बातें भी
ना कल में
ही पहुंचा देती
हैं और फिर जब हम अपने
आज में आते
है तो पता
चलता है की
जिस आज को
हम जी रहे
थे वो कल
बन चूका है
और जिस आज
को हम जी
रहे है वो
भविष्य है। अपना आज खोना हमे
यूँ मंज़ूर नहीं
हो पता और
हम दोबारा से
अपने अतीत मैं
यानी कल मे
अपना आज ढूंढते
है जिससे दोबारा
से हम अपने
अतीत मे पहुँच
जाते है और
जब फ़िर से
हम अपने अतीत
को खँगालकर वापस
आज मे आते
है तो वो
दोबारा हमारा अतीत
बन चूका होता
है और फिर
से हम अपने
आप को भविष्य
में पाते है।
और यही वजह
है की हम
आज की बात
आज नहीं कर
पाते और कल
की कल। विषय
थोड़ा अजीब और
जटिल ज़रूर था
पर कल की बात बताते - बताते आज ही में हो गया ना हल।
तो इससे पहले की मेरा ब्लॉग पढ़ते - पढ़ते आप आज से कल पहुँच जाओ और फिर अपने आज को कल बना लो और फिर भविष्य में अपने -आप को मेरे द्वारा तुम्हारे कल को यानी आज को ठगा हुआ महसूस करो में इस ब्लॉग को यहीं समाप्त करता हूँ।
Written
By Sagar Sharma

Beautiful ❤️
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